Monday, December 10, 2012

अलग अंदाज़ इनके

अलग अंदाज़ इनके और वो छुपा राजदान है
लगती चोट पे चोट और हम करते नहीं फ़रियाद.

अज़ब अदा इनकी और वो कातिल तीरंदाज है
हर एक निशाना सचोट और हम छुपाते गम सरेआम.
मय है साक़ी भी है सामने वो खड़ा सय्याद है
आग लगी मैख़ाने में हमने मागी दो बुँदे सरकार.

फैलाये सपनों के पंख उड़ता वो परवाज़ है
आवाज़ भी मेरी ना सुन सका कैसा हुआ अनजान.

तुम तक मुझे जो लेके चले ढूढ़ते वो लम्हात है
मेरे गीतों में मेरी गज़लो में वो,वोही मेरा तलबगार.

रेखा ( सखी )

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